लाल बहादुर शास्त्री – कष्टसाध्य जीवन और दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु !
October 2, 2018‘हम चाहे रहें या न रहें, हमारा देश और तिंरगा झंडा रहना चाहिए और मुझे पूरा विश्वास है कि हमारा तिंरगा हमेशा ऊंचा रहेगा, भारत विश्व के…
‘हम चाहे रहें या न रहें, हमारा देश और तिंरगा झंडा रहना चाहिए और मुझे पूरा विश्वास है कि हमारा तिंरगा हमेशा ऊंचा रहेगा, भारत विश्व के देशों में सर्वोच्च होगा। यह उन सबमें अपनी गौरवाशाली विरासत का संदेश पहुंचाएगा।’’ ये शब्द भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के हैं, जो उन्होंने लालकिले की प्राचीर से 15 अगस्त, 1965 को कहे थे।
शास्त्रीजी प्रतिनिधि थे एक ऐसे आम आदमी के, जो अपनी हिम्मत से विपरीत परिस्थितियों की दिशाएं मोड़ देता है। एक साधारण परिवार में जन्मे और विपदाओं से जूझते हुए सत्य, स्नेह, ईमानदारी कर्तव्यनिष्ठा एवं निर्भीकता के दम पर विश्व के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की अपने आपमें एक अनोखी मिसाल हैं-लालबहादुर शास्त्री।
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव (जो बाद में भारत सरकार के राजस्व विभाग के क्लर्क के पद पर आसीन हुए) और उनकी धर्मपत्नी रामदुलारी के पुत्र के रूप में हुआ था। जब वे महज अठारह महीने के थे तभी दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया और माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं। किन्तु कुछ समय बाद नाना भी नहीं रहे और ऐसे में बिना पिता के बालक नन्हें की परवरिश करने में बालक के मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया।
ननिहाल में रहते हुए ही लालबहादुर ने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की और उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल में हुई। 17 वर्ष की अल्पायु में ही गाँधीजी की स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार करने की अपील पर वे पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन से संलग्न हो गए। परिणामस्वरूप वे जेल भेज दिए गए। जेल से रिहा होने के पश्चात् उन्होंने काशी विद्यापीठ (वर्तमान महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ) में पढ़ाई आरंभ की। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया और इसके पश्चात ‘शास्त्री’ शब्द ‘लालबहादुर’ के नाम के साथ ऐसा समबद्ध हुआ कि लोग इसे ही उनकी जाति समझने लग गए।
स्नातकोत्तर के बाद वह गांधी के अनुयायी के रूप में फिर राजनीति में लौटे। सन् 1926 में शास्त्रीजी ने इलाहाबाद को अपना कार्य-क्षेत्र चुना और 1929 में उन्होंने श्री पुरुषोत्तम दास टंडन के साथ ‘भारत सेवक संघ’ के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। बाद में वे इलाहाबाद नगर पालिका, तदोपरांत इम्प्रुवमेंट ट्रस्ट के भी सदस्य रहे| स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वे कुल सात बार जेल गए और अपने जीवन में कुल मिलाकर 9 वर्ष उन्हें कारावास की यातनाएँ सहनी पड़ीं। 1928 में उनका विवाह श्री गणेशप्रसाद की पुत्री ‘ललिता’ से हुआ। ललिता जी से उनके छ: सन्तानें हुईं, चार पुत्र- हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक; और दो पुत्रियाँ- कुसुम व सुमन। उनके चार पुत्रों में से दो- अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री प्रभुकृपा से अभी भी हैं, शेष दो दिवंगत हो चुके हैं।
अपने राजनैतिक सफ़र में उन्होंने संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की कांग्रेस पार्टी में प्रभावशाली पद ग्रहण किए और 1937 एवं 1946 में वे संयुक्त प्रांत की विधायिका में निर्वाचित हुए। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में गृह एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री के समय में उन्होंनें प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद में नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया।
1951 में जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। 1952 में वह संसद के लिये निर्वाचित हुए और केंद्रीय रेलवे व परिवहन मंत्री बने। इसी पद पर कार्य करते समय शास्त्रीजी की प्रतिभा पहचान कर 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के चुनाव आंदोलन को संगठित करने का भार नेहरू जी ने उन्हें सौंपा। चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से विजयी हुई जिसका बहुत कुछ श्रेय शास्त्रीजी की संगठन कुशलता को दिया गया। 1952 में ही शास्त्रीजी राज्यसभा के लिए चुने गए और उन्हें बहुत ही महत्वपूर्ण “रेल मंत्रालय” का दायित्व मिला।
वर्ष 1954 में इलाहाबाद में महाकुंभ मेला लगा जिसमें करीब 20 लाख तीर्थयात्रियों के लिए व्यवस्था की गई। दुर्भाग्यवश मौनी अमावस्या स्नान के दौरान बरसात होने के फलस्वरूप बांध पर फिसलन होने से प्रात: 8.00 बजे दुर्घटना हो गई। सरकारी आंकड़ों ने 357 मृत व 1280 को घायल बताया, परंतु ग्राम सेवादल कैंप जिसकी देखरेख मृदुला साराभाई व इंदिरा गांधी कर रही थीं, की गणना के अनुसार यह संख्या दोगुनी थी। दुर्घटना पर जांच कमीशन बैठा जिसने डेढ़ वर्ष बाद रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार और रेल अव्यवस्था को दोषी करार दिया। 1956 के मध्य में भी कुछ और रेल दुर्घटनाएं हो गईं, जिसमें 1956 में हुयी अडियालूर रेल दुर्घटना, जिसमें कोई डेढ़ सौ से अधिक लोग मारे गए थे, प्रमुख थी। शास्त्रीजी ने अपना नैतिक दायित्व मानते हुए रेलमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और इनके इस निर्णय का देशभर में स्वागत किया गया|
शास्त्रीजी को कभी किसी पद या सम्मान की लालसा नहीं रही। उनके राजनीतिक जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए जब शास्त्रीजी ने इस बात का सबूत दिया। इसीलिए उनके बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे अपना त्यागपत्र सदैव अपनी जेब में रखते थे।
अपने सद्गुणों व जनप्रिय होने के कारण 1957 के द्वितीय आम चुनाव में वे विजयी हुए और पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में परिवहन व संचार मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए। सन् 1958 में वे वाणिज्य व उद्योगे मंत्री बनाए गए। पं. गोविंद वल्लभ पंत के निधन के पश्चात् सन् 1961 में वे गृहमंत्री बने, किंतु सन् 1963 में जब कामराज योजना के अंतर्गत पद छोड़कर संस्था का कार्य करने का प्रश्न उपस्थित हुआ तो उन्होंने सबसे आगे बढ़कर बेहिचक पद त्याग दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू जब अस्वस्थ रहने लगे तो उन्हें शास्त्रीजी की बहुत आवश्यकता महसूस हुई। जनवरी 1964 में वे पुनः सरकार में अविभागीय मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए और नेहरू की मृत्यु के बाद चीन के हाथों युद्ध में पराजय की ग्लानि के समय 9 जून 1964 को उन्हें प्रधानमंत्री का पद सौंपा गया।
शास्त्रीजी को प्रधानमंत्रित्व के 18 माह की अल्पावधि में अनेक समस्याओं व चुनौतियों का सामना करना पड़ा किंतु वे उनसे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपने शांत स्वभाव व अनुपम सूझ-बूझ से उनका समाधान ढूँढने में कामयाब होते रहे। स्व. पुरुषोत्तमदास टंडन ने शास्त्री जी के बारे में ठीक ही कहा था कि उनमें कठिन समस्याओं का समाधान करने, किसी विवाद का हल खोजने तथा प्रतिरोधी दलों में समझौता कराने की अद्भुत प्रतिमा विद्यमान थी।
कश्मीर की हजरत बल मस्जिद से हजरत मोहम्मद के पवित्र बाल उठाए जाने के मसले को, जिससे सांप्रदायिक अशांति फैलने की आशंका उत्पन्न हो गई थी, शास्त्रीजी ने जिस ढंग से सुलझाया वह सदा अविस्मरणीय रहेगा। देश में खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने पर अमेरिका के प्रतिमाह अन्नदान देने की पेशकश पर तो शास्त्रीजी तिलमिला उठे किंतु संयत वाणी में उन्होंने देश का आह्वान किया- ‘पेट पर रस्सी बाँधो, साग-सब्जी ज्यादा खाओ, सप्ताह में एक शाम उपवास करो। हमें जीना है तो इज्जत से जिएँगे वरना भूखे मर जाएँगे। बेइज्जती की रोटी से इज्जत की मौत अच्छी रहेगी।’
हालांकि भारत की आर्थिक समस्याओं से प्रभावी ढंग से न निपट पाने के कारण शास्त्री जी की आलोचना हुई, लेकिन जम्मू-कश्मीर के विवादित प्रांत पर पड़ोसी पाकिस्तान के साथ वैमनस्य भड़कने पर उनके द्वारा दिखाई गई दृढ़ता के लिये उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली| उनको चाहने वाले लोगों को वो दिन आज भी याद आता है जब 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायं 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया था तो उस समय तीनों रक्षा अंगों के चीफ ने लालबहादुर शास्त्री से पूछा ‘सर आप क्या चाहते है आगे क्या किया जाए…आप हमें हुक्म दीजिए’ तो ऐसे में शास्त्री जी ने कहा कि “आप देश की रक्षा कीजिए और मुझे बताइए कि हमें क्या करना है?” ऐसे प्रधानमंत्री बहुत कम ही होते हैं जो अपने पद को सर्वोच्च नहीं वल्कि अपने पद को जनता के लिए कार्यकारी मानकर चलते है|
सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने विजयश्री का सेहरा पहना कर देश को ग्लानि और कलंक से मुक्त करा दिया। छोटे कद के विराट हृदय वाले शास्त्रीजी अपने अंतिम समय तक शांति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहे। सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध विराम के बाद उन्होंने कहा था कि ‘हमने पूरी ताकत से लड़ाई लड़ी, अब हमें शांति के लिए पूरी ताकत लगानी है।’
भारत की जनता के लिए यह दुर्भाग्य ही रहा कि ताशकंद समझौते के बाद वह इस छोटे कद के महान पुरुष के नेतृत्व से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो गई। 11 जनवरी सन् 1966 को इस महान पुरुष का ताशकंद में ही हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। मरणोपरांत सन् 1966 में उन्हें भारत के सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया। राष्ट्र के विजयी प्रधानमंत्री होने के नाते उनकी समाधि का नाम भी ‘विजय घाट’ रखा गया। भारत के अद्वितीय प्रधानमन्त्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनके द्वारा स्थापित नैतिक मूल्यों का वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में अभी भी महत्व है|
शास्त्री जी के पुत्र सुनील शास्त्री की पुस्तक ‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’ के अनुसार शास्त्री जी आज के राजनीतिज्ञों से बिल्कुल भिन्न थे। उन्होंने कभी भी अपने पद या सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग नहीं किया। अपनी इस दलील के पक्ष में एक नजीर देते हुए उन्होंने लिखा है, ‘शास्त्री जी जब 1964 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरले कार मिली, जिसका उपयोग वह न के बराबर ही किया करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी।’ किताब के अनुसार एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री किसी निजी काम के लिए इंपाला कार ले गए और वापस लाकर चुपचाप खड़ी कर दी। शास्त्रीजी को जब पता चला तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि कल कितने किलोमीटर गाड़ी चलाई गई और जब ड्राइवर ने बताया कि चौदह किलोमीटर तो उन्होंने निर्देश दिया, ‘लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज।’ शास्त्रीजी यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें।
शास्त्रीजी की सादगी और किफायत का यह आलम था कि एक बार उन्होंने अपना फटा हुआ कुर्ता अपनी पत्नी को देते हुए कहा, ‘इनके रूमाल बना दो।’ इस सादगी और किफायत की कल्पना तो आज के दौर के किसी भी राजनीतिज्ञ से नहीं की जा सकती। पुस्तक में कहा गया है, ‘वे क्या सोचते हैं, यह जानना बहुत कठिन था, क्योंकि वे कभी भी अनावश्यक मुंह नहीं खोलते थे। खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने में उन्हें जो आनंद मिलता था, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।’
लालबहादुर शास्त्री अपनी सारी व्यस्ताओं के बावजूद अपनी मां के साथ कुछ पल बिताना नहीं भूलते थे और बाहर से चाहे वे कितना ही थककर आयें अगर मां आवाज देती थीं तो वह उनके पास जाकर जरूर बैठते थे। पुस्तक ‘‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’’ में बताया गया है कि शास्त्री जी की मां उनके कदमों की आहट से उनको पहचान लेती थीं और बड़े प्यार से धीमी आवाज में कहती थीं ‘‘नन्हें, तुम आ गये? और शास्त्री जी चाहे कितनी ही परेशानियों से लदे हुए आये हों, मां की आवाज सुनते ही उनके कदम उस कमरे की तरफ मुड़ जाते थे, जहां उनकी मां की खाट पड़ी थी।
पुस्तक के अनुसार शास्त्री जी की मां रामदुलारी 1966 में शास्त्री जी के निधन के बाद नौ माह तक जीवित रहीं और इस पूरे समय उनकी फोटो सामने रख उसी प्यार एवं स्नेह से उन्हें चूमती रहती थीं, मानों वह अपने बेटे को चूम रही हों। सुनील शास्त्री के अनुसार उनकी दादी कहती थीं, इस नन्हे ने जन्म से पहले नौ महीने पेट में आ बड़ी तकलीफ दी और नहीं जानती थी कि वह इस दुनिया से कूच कर मुझे नौ महीने फिर सतायेगा। किताब के अनुसार शास्त्री जी के निधन के ठीक नौ माह बाद उनकी माता का निधन हो गया था। लेखक लिखते हैं, दादी का प्राणांत बाबूजी के दिवंगत होने के ठीक नौ महीने बाद हुआ। पता नहीं कैसे दादी को मालूम था कि नौ महीने बाद ही उनकी मृत्यु होगी।
शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मत है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई। पहली इन्क्वायरी राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी ऐसा बताया गया। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर० एन० चुघ और रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी।
शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (CIA’s Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर द्वारा सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि “शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।”, यही बतलाता है कि कहीं कुछ है जो गड़बड़ है।
यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गत वर्ष जुलाई 2012 में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी, जिनका कहना था कि जब शास्त्री जी के शव को उन्होंने देखा था तो उनकी छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे जिन्हें देखकर साफ लग रहा था कि उन्हें जहर दिया गया है। लालबहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही कहना था कि लालबहादुर शास्त्री की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी|