वेद में जैन मत और बौद्ध मत
August 28, 2018वेद में जैन मत और ऋषि-जैन और बौद्ध मतों को प्रायः नास्तिक या वेद विरोधी मानते हैं। पर वेद में सभी प्रकार के मतों का समन्वय है। शाब्दिक अर्थ के तर्क के रूप में बौद्ध मत भी है जो गौतम के न्याय दर्शन का ही थोड़ा दूसरे शब्दों में वर्णन है। वेद में जैन तर्क भी कई स्थानों पर हैं। जैन तर्क में अस्ति-नास्ति-स्यात् (शायद) को मिलाकर ७ प्रकार के शाब्दिक विकल्प हैं। ३ तथा ७ प्रकार के सत्यों का वर्णन भागवत पुराण में ब्रह्मा द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति में भी है-
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये। सत्यस्य सत्यम् ऋतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः॥ (भागवत पुराण, १०/२/२६)
वेद में भी ३ प्रकार के ७ विकल्पों का कई स्थानों पर वर्णन है-
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः। वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥१॥ (अथर्व, शौनक संहिता, १/१/१)
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्। (पुरुष सूक्त, यजुर्वेद, ३१/१५)
शब्द रूप में ३ या ७ ही विकल्प होते हैं। गणित के अनुसार अनन्त विकल्प होंगे। इसमें संशय होता है। अतः जैन मत को अनेकान्त या स्याद्वाद भी कहते हैं। वेद में ३ प्रकार के अनन्तों का वर्णन है, जिनको विष्णु सहस्रनाम में अनन्त, असंख्येय, अप्रमेय कहा है। नासदीय सूक्त (ऋग्वेद, १०/१२९) में भी संशयवाद है जिसकी पण्डित मधुसूदन ओझा ने दशवाद रहस्य में व्याख्या की है-
तम आसीत् तमसा गूळ्हमग्रेऽ प्रकेतं सलिलं सर्व मा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्व पिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥३॥
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कुत अजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथ को वेद यत आबभूव॥६॥
= आरम्भ में सब तरफ अन्धकार था उसमें कोई सीमा या पदार्थ का पता नहीं चलता था। वह स्वयं अपनी महिमा में तप रहा था। निश्चय पूर्वक कोई नहीं कह सकता कि यह सृष्टि कहां से हुई और कैसे इसके बहुत से भेद हो गये। (विसृष्टि = पुराण का प्रतिसर्ग)। देव भी तो सृष्टि के बाद ही हुये, वे कैसे जान सकते हैं कि यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ?
पुराणों में अभी ब्रह्माब्द का तीसरा दिन चल रहा है। हर ब्रह्माब्द २४,००० वर्ष का है जिसके २ भाग हैं। प्रथम अवसर्पिणी १२,००० वर्ष का है जिसमें क्रम से सत्य. त्रेता, द्वापर, कलि आते हैं जिनका अनुपात ४,३,२,१ है। उसके बाद १२,००० वर्ष के उत्सर्पिणी में विपरीत क्रम से उतने ही मान के युग आते हैं-कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य। वैवस्वत मनु से तीसरा ब्रह्माब्द आरम्भ हुआ है-जिसमें सत्य, त्रेता, द्वापर की समाप्ति महाभारत के ३६ वर्ष बाद ३१०२ ई.पू. में हुई। उसके बाद १२०० वर्षों का कलि १९०२ ई.पू. तक थ जिसके बाद उत्सर्पिणी का कलि ७०२ ई.पू. तक, द्वापर १६९९ ई. तक रहा। उसके बाद अभी त्रेता चल रहा है जो ५२९९ ई. तक रहेगा। इस अवसर्पिणी में ऋषभ देव से महावीर तक जैन मत के २४ तीर्थङ्कर हुए। ऋषभ का अर्थ है सभ्यता, ज्ञान, कर्म का आरम्भ, वृषा = वर्षा करने वाला। इसी से वृषभ हुआ है जो कृषि का मूल आधार है जिस पर सभ्यता निर्भर है।
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती वितन्वताजस्य सतीं स्मृतिं हृदि।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत्किलास्यतः स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम्॥ (भागवत पुराण, २/४/२२)
अवसर्पिणी का अन्त १९०२ ई.पू. में हुआ। उससे ३ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर का जन्म ११-३-१९०५ ई.पू. चैत्र शुक्ल १३ को हुआ। उनके १३०० वर्ष बाद ५९९ ई.पू. में उज्जैन में जैन मुनि कालकाचार्य का जन्म हुआ जिन्होंने जैन शात्रों का उद्धार किया अतः उनको वीर (महावीर नहीं) कहते हैं और उनके निधन से ५२७ ई.पू. से वीर सम्वत् आरम्भ होता है। वीर का अर्थ सीमा होता है -रामायण अयोध्याकाण्ड (७१/५) में मत्स्य की सीमा को वीरमत्स्य कहा है। व्रती अर्थ में भी वीर होता है (भागवत, १०/८७/४५) वीर का अर्थ पुत्र भी है- अघा स वीरैर्दशभिर्वियूयाः (ऋक् ७/१०४/१५) । इन अर्थों में अन्तिम तीर्थंकर महावीर थे अर्थात् ऋषभ महिमा की सीमा पर। ऋषभ देव ही वृषभ वाहन महादेव के मूर्त रूप हैं और उनके अवतार को भी महावीर कहते हैं। बीच के २२ तीर्थंकर पहले और बाद के तीर्थंकरों के बीच के सूत्र थे अतः उनको नाथ कहा गया है (नध = बान्धना)
कूर्म पुराण (५२/-१०) वायु पुराण (२३/१८९) के अनुसार २८ व्यासों में ऋषभ देव ११वें थे। भागवत पुराण स्कन्ध ५ के अध्याय ४ में तथा विष्णु पुराण अध्याय (२/१) में ऋषभ देव जी की महिमा का वर्णन है। व्यास परम्परा ३१०२ ई.पू. से २६,००० वर्ष पूर्व स्वायम्भुव मनु द्वारा आरम्भ हुयी जिनको मनुष्य रूप में ब्रह्मा कहते हैं। महाभारत, शान्ति पर्व अध्याय ३४८ के अनुसार ७ मनुष्य ब्रह्मा थे जिनको जैन तीर्थंकरों के रूप में परमेष्ठी (ब्रह्मा का पर्यायवाची) कहा गया है। वैवस्वत मनु के पिता विवस्वान् भी ५वें व्यास थे तथा उसके बाद ६ठे व्यास यम के बाद जल प्रलय हुआ था। प्रायः १०,००० ई.पू. के जल प्रलय के बाद प्रायः ९५०० ई.पू. में ऋषभ देव हुए। जल प्रलय के बाद पिछले प्रलय (३१००० ई.पू.) के बाद जैसे ब्रह्मा ने सभ्यता शुरु की उसी तरह इस बार ऋषभदेव जी ने भी किया। इस अर्थ में उनको स्वायम्भुव मनु का वंशज कहा गया है।
पुराणों में जो वर्णन है उसके अनुसार जैन शास्त्रों में ऋषभ देव को असि (तलवार), मसि (स्याही), कृषि का प्रेरक तथा शत्रु संहारक रूप में अरिहन्त कहा है। अरिहन्त का छोटा रूप अर्हत् (योग्य) है। अः +(ह) अम् = अर्हम्, अः + म् = ॐ। ऋग्वेद (१०/१६६) सूक्त के ऋषि ऋषभ हैं। देवता सपत्ननाशन (अरिहन्त) हैं।
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥१॥
अहमस्मि सपत्नहेन्द्र इवारिष्टो अक्षतः। अधः सपत्ना मे पदोरिमे सर्वे अभिष्ठिताः॥२॥
अत्रैव वोऽपि नह्याम्युभे आत्नीव ज्यया। वाचस्पते नि षेधेमान्यथा मदधरं वदान्॥३॥
अभिभूरहमागमं विश्वकर्मेण धाम्ना। आ वश्चित्तमा वोऽहं समितिं ददे॥४॥
योगक्षेमं व आदायाहं भूयासमुत्तम आ वो मूर्धानमक्रमीम्।
अधस्पदान्म् उद्वदत मण्डूका इवोदकान् मण्डूका उदकादिव॥५॥
यहां गोपतिं गवाम् का अर्थ है गो-वृषभ आधारित कृषि। ऋक् (१०/७१) के अनुसार ने ब्रह्मा ने बृहस्पति द्वारा हर वस्तु के नाम रखे और दृश्य वाक् (लिपि) बनायी। ऋषभ जी ने भी वाचस्पति द्वारा संशोधित लिपि बनाई जिसे जैन शास्त्रों में ब्राह्मी कहा गया है। समिति (सभा, संस्था) बनायी तथा विश्वकर्मा रूप में विश्व व्यवस्था बनायी जैन शास्त्रों के अनुसार कर्म विभाजन के लिये ४ वर्ण बनाये थे तथा उनकी पहचान के लिये ३ प्रकार के यज्ञोपवीत निर्धारित किया (३ प्रकार की गांठ)।
वेन ऋषभ जी के पूर्व के हैं जिनको पद्मपुराण में जैन कहा गया है। वह ७ ब्रह्मा या परमेष्ठी में नहीं थे, पर तीर्थंकर हो सकते हैं क्योंकि उनको विष्णु लोक की प्राप्ति हुयी थी। उनके सूक्त हैं-ऋग्वेद (१०/१२३), अथर्व वेद (२/१, ४/१,२)। उनके पुत्र पृथु का समय प्रायः १७,००० ई.पू. है और ये प्रह्लाद कार्त्तिकेय (१५८०० ई.पू.) के पूर्व के तथा कश्यप (१७५०० ई.पू.) के बाद के थे। वेन को भी बहुत प्रतापी तथा योग्य कहा गया है। वेन का शाब्दिक अर्थ तेजस्वी है और शुक्र को भी वेनः (Venus) कहा है।
पद्म पुराण,भूमि खण्ड २, अध्याय (३३-३७) के अनुसार वेन बहुत ही प्रतापी और धार्मिक राजा था। उसके राजा बनते ही चोरडा-कू छिप गये थे। बाद में प्रभुत्व पाने पर वह अहंकारी हो गया और विष्णु के स्थान पर अपनी पूजा कराने लगा। अध्याय (२/३७) के अनुसार एक नग्न मुण्डित साधु आया और कहा कि मैं जिन रूप हूं तथा अर्हत् देव का उपासक हूं। अर्थात् वह दिगम्बर जैन था और ऋषभ देव के पूर्व का था।
पुरुषः कश्चिदायातः छद्मलिंगधरस्तदा। नग्नरूपो महाकायः शिरोमुण्डो महाप्रभः॥५॥
मार्जनीं शिखिपत्राणां कक्षायां स हि धारयन्।गृहीतं पानपात्रं तु नारिकेल मयं करे॥६॥
पठमानोह्यसच्छास्त्रं वेद धर्म विदूषकम्। यत्र वेनो महाराजस्तत्रायातस्त्वरान्वितः॥७॥
पातक उवाच-अहं धर्स्य सर्वस्वमहं पूज्यतमो सुरैः। अहं ज्ञानमहं सत्यमहं धाता सनातनः॥१३॥
अहं धर्ममहं मोक्षः सर्वदेवमयोह्यहम्। ब्रह्म देहात् समुद्भूतः सत्यसन्धोऽस्मिनान्यथा॥१४॥
जिनरूपं विजानीहि सत्य धर्म कलेवरम्। मामेव हि प्रधावन्ति योगिनो ज्ञान तत्पराः॥१५॥
अर्हन्तो देवता यत्र निर्ग्रन्थो दृश्यते गुरुः। दया चैव परो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते॥१७॥
पितॄणां तर्पणं नास्ति नातिथिर्वैश्वदेविकम्। क्षपणस्यवरा पूजा अर्हतो ध्यानमुत्तमम्॥२०॥
अयं धर्म समाचारो जैन मारे प्रदृश्यते। एतत्ते सर्व माख्यातं निज धर्मस्य लक्षणम्॥२१॥
भागवत पुराण (४/१४) के अनुसार ऋषियों के शाप से दग्ध हो गया। पर वेन के मरते ही चोर-डाकुओं का उपद्रव आरम्भ हो गया। अतः वेन के शरीर के मन्थन से राजा पृथु का जन्म हुआ जो पृथ्वी के दोहन (खनिज तथा कृषि) के लिये विख्यात हैं। किन्तु पद्म पुराण (२/३९) अध्याय के अनुसार शरीर से पाप के निष्क्रमण के बाद वेन ने तप किया और विष्णु की स्तुति की। अध्याय (२/१००, १२३, १२५) के अनुसार यज्ञ के कारण वेन को विष्णु लोक की प्राप्ति हुई।
स्रोत : Arun Upadhyay IPS (Retired)
Arun Upadhyay is a retired IPS officer. He is the author of 10 books and 80 research papers.