गायत्री मन्त्र-

गायत्री मन्त्र-

August 28, 2018 0 By Ajay

गायत्री को वेदमाता कहा गया है। इस नाम का अथर्व वेद (१९/७१) में एक सूक्त भी है-
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। महीं दत्त्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम्।
महर्षि दैवरात ने वाङ्माता रूप में (ऋक् (१०/११४/४) को माना है-
एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश, स इदं भुवनं वि चष्टे।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तिस्तं, माता रेळ्हि स उ रेळ्हि मातरम्॥
माता शब्द मा धातु (माङ् माने, शब्दे च-पाणिन्य धातु पाठ २/५५, ३/६, ४/३३) से बना है। शब्द आकाश का गुण है-उसी से सभी की उत्पत्ति है। उसका माया द्वारा खण्ड होने पर इनसे माप होती है। माप-पात्र से द्रव की माप है, माता के शरीर से पुत्र निकलता है, माता भी माप करने वाली है। माप के आवरण के कारण भीतरी रूप नहीं दीखता है, अतः माया का अर्थ भ्रम भी है। गायत्री इन रूपों में वेदमाता है-लोकों की माप, सांख्य के २५ तत्त्वों के रूप में जगत्, विश्व के खण्डों के रूप में। अथर्व सूक्त में मही से ब्रह्म लोक तक की माप, आयु, प्रजा, प्राण, पशु, कीर्त्ति, द्रविण अर्थों में उल्लेख है। ऋक् सूक्त के साथ देखने पर द्रविण (द्रविड़) क्षेत्र में सुपर्ण ने समुद्र में प्रवेश किया तथा उस क्षेत्र का माता के समान पालन किया। नौसेना-प्रमुख को सुपर्ण (सुवन्ना) नायक कहते थे। भूमि-पालक (किसान) को आन्ध्र प्रदेश में रेड्डी (रेळ्हि) तथा महाराष्ट्र में रेलि या रेले कहते हैं। सुपर्ण ने जहां समुद्र में प्रवेश किया, उसे (सु-)ताम्रपर्णी (रामेश्वरम्) तथा उसके निकट का समुद्र पाक (पाकेन मनसा अपश्यम्) कहा जाता है। पाक के दो अर्थ हैं-गर्म कर पकाना, मिलाना। यह समुद्र दो भूखण्डों को मिलाता है।
गायत्री से वेद की उत्पत्ति-(१) महाव्याहृति द्वारा ३ या ७ लोकों का उल्लेख।
(२) लोकों की माप-गायत्री २४ अक्षर का छन्द है। २ घात २४ (= १ कोटि) सभी लोकों की माप है। विष्णु पुराण (२/७/४) में कहा है कि मनुष्य से पृथ्वी जितनी बड़ी है (१ कोटि गुणा), पृथ्वी की तुलना में उसका आकाश उतना ही बड़ा है। उसके पूर्व के श्लोक में कहा है कि सूर्य तथा चन्द्र से प्रकाशित भाग को पृथ्वी कहते हैं तथा हर पृथ्वी में नदी, द्वीप तथा समुद्रों के वही नाम हैं जो पृथ्वी ग्रह पर हैं। ३ पृथ्वी तथा उनके आकाश को वेद में ३ माता तथा ३ पिता कहा है।
पृथ्वी ग्रह-यह सूर्य-चन्द्र दोनों से प्रकाशित है। इसका आकाश सौर-मण्डल है। सौर भूमि वह क्षेत्र है जहां तक के पिण्ड सूर्य कक्षा में रह सकते हैं। सौर आकाश वह क्षेत्र है जहां तक सूर्य का प्रकाश अधिक (आकाश गङ्गा की तुलना में) है।
सौर पृथ्वी-यह सूर्य द्वारा प्रकाशित क्षेत्र है। इसमें भी पृथ्वी के चारों तरफ ग्रहों की गति से वृत्त या वलय आकार के क्षेत्र हैं जिनको द्वीप कहा है तथा उनके बीच के भाग को समुद्र। इनके वही नाम हैं जो पृथ्वी के द्वीपों तथा समुद्रों के हैं। पर पृथ्वी के द्वीप या समुद्र वलय आकार के नहीं हैं। इस पृथ्वी के लिये ब्रह्माण्ड आकाश है।
ब्रह्माण्ड पृथ्वी-यह सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा है, जहां तक वह विन्दु-मात्र दीख सकता है। इसके केन्द्रीय घूमने वाले चक्र को पृथ्वी की गङ्गा की तरह आकाश गङ्गा कहते हैं। इसके लिये दृश्य जगत् ही आकाश है।
इन सभी पृथ्वी से उनके आकाश १ कोटि (२ घात २४) गुणा बड़े हैं। अर्थात्, मनुष्य से आरम्भ कर पृथ्वी ग्रह, सौर मण्डल भूमि, ब्रह्माण्ड, दृश्य जगत् क्रमसः कोटि-कोटि गुणा बड़े हैं।
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वमिदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥ (ऋग्वेद १/१६४/१०)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
रवि चन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते । स समुद्र सरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता ॥
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात् ।
नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज ॥ (विष्णु पुराण २/७/३-४)
गायत्र्या वै देवान् इमान् लोकान् व्याप्नुवन् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १६/१४/४)
(३) शब्द रूपी वेद स्वयं देवी या गायत्री स्वरूप हैं-
शब्दात्मिकां सुविमलर्ग्यजुषां निधानमुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भव भावनाय वार्ता च सर्व जगतां परमार्ति हन्त्री (दुर्गा सप्तशती ४/१०)
शब्दों का उच्चारण ८ भागों में है। १ अक्षर में स्वर के पूर्व ४ तथा उसके बाद ३ वर्ण संयुक्त हो सकते हैं। अतः गायत्री मन्त्र ८-८ अक्षर के ३ पादों में है, ४ पाद होने पर अनुष्टुप् होगा। बीच के स्वर की शक्ति २ विन्दु है, अतः कुल ९ विन्दु १ अक्षर में हैं। वाचामष्टापदीमहं नवस्रक्तिमृतस्पृशम्। इन्द्रात्परि तन्वं ममे॥ (ऋग्वेद, ८/७६/१२)
(४) सभी छन्द (गायत्री भी) ४ पाद के होते हैं। पर गायत्री छन्द ३ पाद का है क्योंकि अर्थ के अनुसार इस मन्त्र के ३ ही खण्ड है। इसी प्रकार वेद मन्त्रों के भी अर्थ के अनुसार ३ से ६ खण्ड तक भी हैं। छन्द एक वाक्य हुआ, पाद उसका वाक्यांश। किसी भी वेद मन्त्र में एक पाद के शब्द को दूसरे पाद से जोड़ कर अन्वय नहीं किया जा सकता। अन्वय की जरूरत इस लिये पड़ती है कि हिन्दी या अन्य भाषाओं की वाक्य रचना संस्कृत जैसी नहीं है।
मीमांसा सूत्र (२/१/३५)-तेषामृग्यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था।
(५) गायत्री के २४ अक्षर (छन्द या मन्त्र में) सांख्य दर्शान् के २४ तत्त्व हैं, जिनसे विश्व का निर्माण हुआ है। इस अर्थ में संसार को भू कहा गया है-भ २४वां अक्षर है। सीमा के भीतर का विश्व भूमि है। उसका प्रभाव-क्षेत्र या साम भूमा है। पुरुष सूक्त में भूमि का अर्थ विश्व है-
स भूमिं विश्वतो वृत्त्वाश्ऽत्यत्तिष्ठद्दशाङ्गुलम्।
ज्योतिष में भ का अर्थ नक्षत्र है, जो २७ हैं, पर नाम के अनुसार २४ ही हैं, ३ नक्षत्रों के पूर्व तथा उत्तर २-२ भाग हैं।
(६) अष्टविध सृष्टि-पादाक्षर के अनुसार कई प्रकार की ८-८ रचनायें हैं।
१. वैश्वानर अग्नि या शरीर का आकार ८ प्रादेश = ८ १०.५ = ८४ अङ्गुल है।
२. पार्थिव गायत्री-अप् के क्रमशः ८ रूपान्तर हैं-अप्, फेन, ऊषः (क्षार), सिकता (बालू), शर्करा (रेत), अश्मा (पत्थर), अयः (लौह आदि धातु), हिरण्य (सुवर्ण)।
३. आदित्य गायत्री-आदित्य के ४ युग्म। मित्र-वरुण, भग-अंश, धाता-अर्यमा, सविता-विवस्वान्।
४. द्यौ गायत्री-द्यु लोक के ३ पाद-ज्योति, गौ, आयु-सभी अष्टाक्षर हैं।
५. सर्वात्मिका गायत्री-अग्नि के ८ रूप-पृथिवी, अप्, अग्नि, वायु, विद्युत्, सोम, रवि, आत्मा।
६. लोक गायत्री-७ आरण्य पशु, ७ ग्राम्य पशु, ५ उद्भिज्ज, ५ जीव। चतुष्पाद गायत्री के अनुसार वाक्, भू, शरीर, हृदय-४ पाद हैं।
७. संवत्सर-२४ पक्ष गायत्री के २४ अक्षर हैं। पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यु की ८-८ दिशायें भी गायत्री हैं।
८. लोक-मनुष्य से बड़े मण्डल-पृथ्वी, सौर, ब्रह्माण्ड, स्वयम्भू-सभी क्रमशः २ घात २४ या कोटि गुणा बड़े हैं।
(७) गायत्री का प्रथम पाद आकाश की सृष्टि का वर्णन करता है। मध्य पाद दृश्य जगत् तथा तृतीय पाद मनुष्य के भीतर का प्रभाव कहता है। इसी प्रकार वेद मन्त्रों के ३ अर्थ होते हैं-आकाश में आधिदैविक, पृथ्वी पर आधिभौतिक, तथा मनुष्य शरीर के भीतर आध्यात्मिक।
(८) ॐ के ३ पादों का विस्तार गायत्री के ३ पाद हैं। ये ब्रह्म के ३ वर्णनीय रूपों के विषय में हैं-स्रष्टा रूप ब्रह्मा, तेज या क्रिया रूप विष्णु, तथा ज्ञान रूप शिव।
ॐ भूर्भुवः स्वः/तत् सवितुर्वरेण्यं/भर्गो देवस्य धीमहि/धियो यो नः प्रचोदयात्।
सभी देव रूपों के भी ३ भाग इन ३ पादों से व्यक्त होते हैं-
विष्णु-इक्षा या क्रियात्मक विचार, सूर्य, प्रत्येक व्यक्ति का मन। सृष्टि में हर व्यक्ति का मन या पिण्ड प्रायः स्वतन्त्र हैं, इसी कारण सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है। इसका प्रतीक पीपल है जिसके पत्ते मनुष्य के मन जैसे डोलते हैं।
शिव-परमेश्वर जिसके मन में प्रथम विचार उत्पन्न हुआ, तेज के विभिन्न क्षेत्र-रुद्र, शिव (शतरुद्र, सहस्र रुद्र, लक्ष रुद्र), शिवतर, शिवतम, सदाशिव, आदिगुरु रूप शिव। गुरु परम्परा का प्रतीक वत वृक्ष है जिसकी हवाई जड़ जमीन से लग कर वैसा ही वृक्ष बन जाती है। इसी प्रकार गुरु शिष्य को ज्ञान दे कर अपने जैसा मनुष्य बना देता है।
ब्रह्मा-मूल रस रूप पदार्थ, ५ पर्वों के पिण्ड (स्वयम्भू, ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, तथा ग्रहों के जीव), ज्ञान संहति के रूप में वेदत्रयी। त्रयी का अर्थ ४ वेद होता है १ मूल (अथर्व) तथा ३ शाखा-ऋक्, यजु, साम (मुण्डकोपनिषद् १/१/१-५)। इसका प्रतीक पलास वृक्ष है जिसकी शाखा से ३ पत्ते निकलते हैं पर मूल भी बचा रहत है।
हनुमान्-स्रष्टा रूप वृषाकपि है, जो पहले जैसी सृष्टि करता है (सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्-ऋग्वेद १०/१९०/३)। तेज या गति रूप मारुति है। मन को प्रेरित करने वाला रूप मनोजव है (योगसूत्र ३/४९, ऋग्वेद १०/७१/७-८)। इसका प्रतीक मूल वट की शाखाओं से बने वृक्ष हैं जिनको लोकभाषा में दुमदुमा (द्रुम से द्रुम) कहते हैं।
देवी रूप में वैदिक भाषा में भारती, इला, सरस्वती है तथा पौराणिक भाषा में महाकाली, महालक्ष्मी, महा सरस्वती हैं (दुर्गा सप्तशती के ३ चरित्र)।
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः (ऋक् १/१३/९, ५/११/८)
भारतीळे सरस्वति या वः सर्वा उपब्रुवे (ऋक् १/१८८/८)
गणेश रूप में प्रथम पाद उच्छिष्ट गणपति (१ पाद से विश्व बनने के बाद बचा मूल स्रोत) है, दृश्य जगत् के पिण्डों का समूह महा गणपति, तथा लोकों का गण या उसका मुख्य गणेश है।
इसी प्रकार कार्तिकेय (सुब्रह्म) सरस्वती, काली, सरस्वती के भी ३ रूप किये जा सकते हैं।

स्रोत : Arun Upadhyay IPS (Retired)

Arun Upadhyay is a retired IPS officer. He is the author of 10 books and 80 research papers.